Friday 8 March 2019

‘डॉल हाउस’ - मनीषा शर्मा

डॉल हाउस’ उपन्यास हमारे समाज में स्त्री जीवन के पीछे छिपे उस वीभत्स सत्य को उजागर करता है जो उसके आगे लगे सभी सुनहरी परदों की पर्तों को उधेड़कर रख देता है। देवी के रूप में स्त्री को पूजने वाला हमारा समाज किस कद्र वहशी होकर स्त्रियों का शारीरिक और मानसिक बलात्कार करता है, इसे इस उपन्यास के माध्यम से महसूस किया जा सकता है। स्त्री को मात्र भोग्य वस्तु मानने वाला पुरूष वर्ग उसे केवल ‘भोग्य’ के रूप में देखता है। एक तरफ स्त्रियाँ जहाँ चाँद पर कदम रखकर अपना वर्चस्व स्थापित कर रही हैं वहीं हासिए के दूसरी ओर देखें तो स्त्रियों की स्थिति कुछ ज्यादा अच्छी नहीं है। अँधेरे बंद कमरों में अपराधियों सा जीवन जी रहीं ये स्त्रियाँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए मात्र संघर्षरत नहीं हैं बल्कि तिल-तिल कर जलने और घुटने के लिए बाध्य हैं। इन लोगों के जीवन के सत्य को जब जानने का प्रयत्न किया तो पाया कि ये एक ऐसे दलदल के ऊपर अपना जीवन जी रही हैं कि जहाँ आत्मग्लानि और लोगों के वीभत्स व्यवहार के नीचे धंसते चले जाने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

विवशताओं से घिरकर ‘बार घर’ में कार्य करने के लिए बाध्य ‘डॉल हाउस’ की नायिकाएँ क्षमा, निसार, माया, रागिनी

समाज की स्त्रियों के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हुए यहाँ आ गई हैं। जिस्मानी नुमाइश की इस चमकदार दुनिया में रंगीले नोटों के ढेर का आकर्षण उन्हें एक ऐसे दलदल की ओर खींच ले गया है जहाँ से लौटकर आना नामुमिकन है। मुंबई की इन चमकदार और तंग गलियों में ऐसी तमाम रुहें अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भटक रही हैं या परिस्थितियों के कारण विवश हैं। पग-पग पर अपने भीतर मर रहे स्त्रीत्व और टूटे ख्वाबों के टुकड़े समेटते हुए वे किस तरह अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं, इसका वास्तविक चित्र इस उपन्यास में उभर कर आया है।




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