मेरी काव्य यात्रा
शब्दों से पंक्ति बनी, पंक्ति से वाक्य, वाक्य से
काव्य और काव्य से - श्यामात्मा एक काव्य संकलन, ऐसे प्रारंभ हुई
मेरी काव्य यात्रा |
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बचपन से ही साहित्यिक परिवेश में रहने के कारण सोच रचनात्मक रहा,
लेकिन कभी सोचा नहीं कि लेखक बनने की अनुभूति भी प्राप्त होगी | बाबूजी द्वारा बालपन
से सुनता आया साहित्य और रचनाकारों के सन्दर्भ में उन्होंने महाकवि दिनकर के सानिध्य
में शिक्षा प्राप्त किया था | हर बालक की भांति मैंने भी अनेकों ख्वाब देखे, बहुत
में सफल हुआ, बहुत में मुँह की खानी पड़ी | लेकिन जब भी गिरा बाबूजी ने एक महान पथ
प्रदर्शक की तरह संभाला |
मेरे दृष्टि में वो एक कुशल सामाजिक प्रबंधक हैं, जिनसे मुझे सामाजिक
रीतियों कुरीतियों का अनुभव हुआ | वहीं माँ ने अपने आंचल से मेरा मुख पोछ ये बताया
कि दुःख के बाद सुख जरुर मिलेगा और इस वाक्य ने मेरे अंदर के नभ में संख नाद का
कार्य किया |
जीवन की पहली कविता भी वहीं से निकली, उन दिनों बेलूर मठ की यात्रा
से घर आया था, यौवन की दहलीज पे कदम रखा ही था | अन्तः प्रांगण में अनेकों तार
झंकृत हो रहे थे, अकिंचन बाबूजी ने पूछा- यात्रा कैसी रही ? मैं हर्षित हो उठा और
कहा बहुत अच्छी लेकिन मन में एक दुविधा है कि एक सामान्य से नरेन्द्र को भगवन का
दर्शन कैसे प्राप्त हुआ !
उन्होंने ठहाका लगा कहा, ढूंढने वाले को मिल ही जाते हैं | मैं मन
में तलाशने लगा.... कुछ शब्द मिले, पंक्ति बनी –
माता के कटे नख में चाँद को धरा पे
देखा !
उनके गीले गेसुवों में गंगा के धार को
देखा !
पिता के मुख में सूरज की तपिश, तो
प्रातः के गुहार को देखा !
बहन संग लड़ा तो बालपन के कृष्णावतार को
देखा !
भ्रातृ मोह ने खूब हंसाया, वहाँ प्रेम
मय संसार को देखा !
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