Friday 16 August 2019

"Mera Tajurba Mera Khyaal" By Adhyeta

अध्येता एक बेहतर वक्ता, एक बेहतर शिक्षक, एक अच्छा सोचनेवाले और एक प्रगतिशील कवि हैं।
‘‘मेरा तजुर्बा मेरा ख़्याल‘‘ भले ही उनकी पहली रचना है, लेकिन भाषा और ख़्याल से यह कतई आभास नहीं होता है। उनकी शायरी में परिपक्वता है। उनकी शायरी में यूँ तो ताज़गी है, गहराई है, लेकिन सबसे बड़ी विशेषता जज़्बातों की ईमानदारी है।

उनके पास विषयों की विविधता है। ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को बेबाकी से शब्दों में चित्रित किया है। वो फिर चाहे प्रेम हो, देश-प्रेम हो, इंसानियत हो, राजनीति हो या भ्रष्टतंत्रः सभी के बारे में साफ़गोई और प्रभावशाली सलीके से अपने तजुर्बे और ख़्याल को पेश किया है।
अध्येता एक बेहतर इंसान, एक बेहतर समाज और एक बेहतर मुल्क़ की ख़्वाहिश करते हैं। उनकी ख़्वाहिश तंग नहीं बल्कि विराट है। वो कहते हैं-
                        ‘‘अपनी-अपनी हम हदें एक कर लें,
                       आओ साथी सरहदें एक कर लें।‘‘

उनकी आवाज़ कहीं बेहद पैनी, चुभती हुयी और बग़ावती हैं, कहीं शदीद मुलायम, मर्हमी और मर्मभेदी हैं, तो कहीं शिक़ायत का लहज़ा भी है- 
                                                       कौन अपना है कौन पराया, कोई नहीं।
                                                        धूप में आया सर पे साया, कोई नहीं।।
आमतौर पर शायरी विरासत की चीज़ है लेकिन उन्हें यह हुनर विरासत में नहीं मिली। नाजुक ख़्याली और शायराना मिजाज़ उनकी कड़ी मेहनत और विश्व-प्रेम की देन है।
अध्येता ने शायरी के ज़रिए उस सूफ़ी तहज़ीब को भी आगे बढ़ाया है, जिसमें धर्मनिरपेक्षता और मानवप्रेमी मूल्यों को क़ुबूल किया जाता है।
                                                        "‘मुझको हिन्दू बनाओ न मुसलमान बनाओ,
                                                         ज़रूरत जहां की है कि मुझे इंसान बनाओ।‘‘
रंजित कुमार सिंह का जन्म वैशाली में तथा पालन-पोषण व अध्ययन चंपारण (बेतिया) में हुआ। आप एक परम्परावादी मध्यम परिवार से आनेवाले एक चिन्तनशील, प्रगतिशील और विद्रोही क़िस्म के शायर-कवि हैं। आप ‘अध्येता’ नाम से लिखते हैं। आपकी शायरी में एक तरफ़ जहाँ प्रेम की तरलता-शीतलता है, वहीं दूसरी तरफ़ वर्तमान राजनैतिक सिस्टम और सामाजिक-धार्मिक वैमनस्यता के खिलाफ एक आग और बेचैनी के साथ-साथ एक शदीद पीड़ा भी है। आप इंसानियत को सबसे बड़ा दीन-धर्म मानते हुए लिखते हैं-
                                                           ‘‘न हिन्दू बनके रहूँ और न मुसलमान रहूँ,
                                                             मेरा तर्जुबा मेरा ख़याल है कि इंसान रहूँ।‘‘
यूँ तो ज़िंदगी उनकी संघर्षपूर्ण रही है लेकिन कोई भी संघर्ष उनके चट्टानी साहस को तोड़ न पाया। आपने एक सपने के टूटने पर दूसरा गढ़ने में लोक- प्रतिक्रिया की परवाह न की। वर्तमान में, आप अपने शहर में एक बेहतरीन अंग्रेजी शिक्षक के तौर पर बच्चों को काबिल नागरिक बनाने में प्रयत्नशील हैं।

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