नेताजी
सुभाषचंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के खचा-खच भरे केथे हॉल में आधी
रात को ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी और आजाद हिन्द सरकार
का गठन किया था, जिसके पहले प्रधानमंत्री वह स्वयं थे। आजाद हिन्द सरकार को 10
दिनों में 11 देशो ने मान्यता दे दी थी, जिसमें रूस और जर्मनी भी शामिल थे।
भारत
की आजादी का आगाज सबसे पहले तब हुआ जब नेताजी ने अंडमान और निकोबार आइलैंड के रोज
आइलैंड में 30 दिसम्बर 1943 को तिरंगा झंडा फ़हराया और लेफ्टिनेंट कर्नल लौंगनाथन
को वहाँ का लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त किया। 14 अप्रैल 1944 को मणिपुर के मोइरेंग
में तिरंगा झंडा फहराया गया। नागालैंड और कोहिमा के क्षेत्र में 4 महीने तक आजाद
हिन्द सरकार की हुकूमत चली। यहाँ के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे लेफ्टिनेंट कर्नल
चटर्जी। इसके बाद यदि इम्फाल की लड़ाई के समय कांग्रेस को रसद देने की बजाय आजाद
हिन्द सरकार को भारतीय नेताओं ने समर्थन दे दिया होता तो पूरा देश तभी आजाद हो गया
होता। सच्चा इतिहास गवाह है कि जैसी भी आजादी मिली वो भी अंततोगत्वा नेताजी के
व्यक्तित्व और आजाद हिन्द फौज की कुर्बानियों के कारण मुंबई में तलवार नामक जहाज
के नोसैनिकों के 18 फरवरी 1946 के विद्रोह के कारण मिली। आन्दोलनों के कारण आजादी
मिलनी होती तो तब मिल गई होती जब आन्दोलन चलाए गए थे। सारे आन्दोलन 1942 तक खत्म
हो चुके थे। 5 वर्ष के बाद 1947 में भारत को मिला डोमिनियम स्टेट्स भी केवल और
केवल नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की प्रेरणा और आजाद हिन्द फौज की कुर्बानियों को
जाता है। आजाद हिन्द फौज के 70 हजार सिपाहियों में से 26 हजार ने शहादत दी थी।
दुनिया में ऐसी कोई सेना नहीं है जिसने किसी युद्ध में अपने 44% सिपाहियों की शहादत
दी हो।
आजाद
हिन्द फौज के सिपाहियों को पानी के तीन जहाजों में करांची, मुंबई और विशाखापट्नम
लाया गया था। करांची में लाये गये आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को पाकिस्तान की
सेना में मिला लिया गया जिनमें हबीबुर रहमान भी शामिल थे। तत्कालीन सरकारों का
अत्यंत ओछापन था कि आजाद हिन्द फौज के एक भी सिपाही को हिन्दुस्तान की सेना में
स्थान नहीं दिया गया। क्यों ? इतिहास को पुनः लिखे जाने की आवश्यकता है।
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