कुछ तो दर्द़ -ए -दिल जवां
दिल को सोचे दिल जवां ।
दिल को सोचे दिल जवां ।
एहसासों की है ज़मीं
जज़्बातों का आसमां ।
जज़्बातों का आसमां ।
‘झरते पलाश’ सहजता से जीवन के विभिन्न स्वरुपों में यथार्थ के भूतल पर स्व स्फूर्त झरना है । कड़कती धूप में जब छांव भी अपने लिए कुछ ठंडक की तलाश करती है , फूल खिलते हैं मुस्कुराकर उसी तपिश में । वो जानते हैं कि शाम तक मरझा जाएंगे मगर वो खिलखिलाना नहीं छोड़ते।
कवियtri संगीता shrivastava का ये काव्य sangrah
वस्तुत: उनके तख़ल्लुस “कसक” को पूर्णत: एवं सच्चे रुप में
परिभाषित करता है । जिसमें अधूरेपन की एक टीस है तो
कहीं कुछ दर्द़ मीठे से एहसास हैं। ‘झरते पलाश’ खुले आकाश से रुबरु होती है। एक ताज़गी भरा हवा का झोंका है । जहां कभी भावनाओं में बेरुख़ी पतझड़ बन जाती है और फिर मन के अंदर घुमड़ता बादल ही मौसम की हरियाली हो आता है।
वस्तुत: उनके तख़ल्लुस “कसक” को पूर्णत: एवं सच्चे रुप में
परिभाषित करता है । जिसमें अधूरेपन की एक टीस है तो
कहीं कुछ दर्द़ मीठे से एहसास हैं। ‘झरते पलाश’ खुले आकाश से रुबरु होती है। एक ताज़गी भरा हवा का झोंका है । जहां कभी भावनाओं में बेरुख़ी पतझड़ बन जाती है और फिर मन के अंदर घुमड़ता बादल ही मौसम की हरियाली हो आता है।
फ़िज़ा के साथ अपने भीतर ही जब जज़्बातों का सावन भीग जाता है , तब पलाश के पेड़ और फूल की रंगत कुछ और नज़र आती है। ये कविताएं शब्दों में बंधती कभी चलचिtra सी सामने आ जाती हैं । जिंदगी का रोना , हंसना , टूटना , बिखरना और संवरना मानो सब साथ गुनगुनाती हैं । उदास से चेहरे पर अचानक खिलती मुस्कान सचमुच मोहक लगती है ।
जब संवेदनाओं , भावनाओं के तूफ़ान की तीवता पचण्ड हो , कवियtri जैसे अपने स्वभाव से परिचित कराती है। अनुभव ही कविताओं की आत्मा में बस जाते हैं। झरते पलाश की कविता ज़िंदगी को इत्तेफ़ाक कहती है मगर खुशी को इत्तेफाक नहीं मानती ।
कुछ इस तरह …….
ज़िंदगी कुछ अजीब , इत्तेफ़ाक करती है
कभी घात ये कभी , पतिघात करती है ।
इक़ पल में आबाद , दूजे पल बर्बाद करती है
ज़िंदगी खुद जवाब कभी , खुद ही सवाल करती है ।
कभी घात ये कभी , पतिघात करती है ।
इक़ पल में आबाद , दूजे पल बर्बाद करती है
ज़िंदगी खुद जवाब कभी , खुद ही सवाल करती है ।
Website : https://vedvyasmishra.com/
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